पलामू: बाघ जिसे बचाने के लिए आज देश भर में कई प्रोजेक्ट चलाए जा रहे हैं. अब भारत में गिने-चुने इलाकों में बाघ बचे हैं, मगर एक समय ऐसा भी था, जब बाघों को मारने के लिए सरकार पैसा देती थी. जी हां, अंग्रेजों के समय में भारत का एक इलाका बाघों के लिए विख्यात था. झारखंड की राजधानी रांची से 165 किलोमीटर दूर स्थित पलामू को बाघों का देश कहा जाता था. मगर, कम लोगों को ही पता होगा कि उस जमाने में सरकार बाघ मारने पर लोगों को पैसे देती थी.
पलामू के इतिहास को देखें तो ये वही इलाका है, जहां से छत्तीसगढ़ के महाराजा सरगुजा ने 1200 से 1600 बाघ मारने का रिकॉर्ड भी बनाया था. उस जमाने में जंगल जमींदारों के एकाधिकार में था. जंगल में राज घराने के लोग ही बाघ या किसी भी जंगली जानवर का शिकार करने जाते थे. यहां आम लोगों की एंट्री पर पाबंदी थी. वाइल्ड लाइफ के जानकार डॉ. डीएस श्रीवास्तव ने बताया कि उस ज़माने में पलामू में अनगिनत बाघ थे. यहां तक की 1967 और 1968 में कहीं भी बाघ दिख जाते थे. पलामू ही नहीं बल्कि पाटन, छतरपुर, मनातू में बाघ मिलते थे. धुरकी और भंडारिया में बाघों की भरमार थी.
1893-94 में बाघ मारने पर मिलते थे पैसे
आगे बताया कि जब भारत अंग्रेजों का गुलाम था तब अंग्रेजी सरकार ने बाघ और लेपर्ड समेत भेड़िए और भालू को खतरनाक जानवर की श्रेणी में रखा था. क्योंकि, इनसे मानव को खतरा था. तब सरकार द्वारा इन जानवर को मारकर उनके निशान को कचहरी मजिस्ट्रेट के सामने लाने पर इनाम दिया जाता था. बाघ मारकर कोई निशान लाने पर 25 रुपये, तेंदुआ और भेड़िया मारकर निशान लाने पर 5 रुपये और भालू को मारने पर 2 से 8 रुपए दिए जाते थे. ये आंकड़े पलामू पर लिखी खास किताब सर्वे एंड सेटलमेंट रिकॉर्ड ऑफ पलामू में अंकित है. यह रिकॉर्ड डीएचआई सैंडर्स द्वारा 1896 में बनाया गया था.
इतने रुपये इनाम में मिले
इस रिकॉर्ड के आधार पर ही इस इलाके में लगान तय होता था. इस रिकॉर्ड में सन 1892 से 1897 तक पलामू में खतरनाक जानवर मारने पर कितना रुपये सरकार द्वारा दिया गया है, इसका भी जिक्र है. 1892 से 1893 में 384 रुपए, 1893 से 1894 में 1023 रुपए, 1894 से 1895 में 1321 रुपए, 1895 से 1896 में 1972 रुपए और 1896 से 1897 में 1111 रुपए सरकार द्वारा दिए गए थे.
बाघ की खाल पर मिलते थे 100 रुपये
डॉ. डीएस श्रीवास्तव ने बताया कि इस किताब में काफी सारी बातों का जिक्र है. इसमें इस बारे में साफ तौर पर जिक्र है कि सरकार द्वारा बाघ को मारकर निशान लाने पर पैसे दिए जाते थे. इतना हीं नहीं बाघ की खाल और लेपर्ड की खाल पर भी पैसे मिलते थे. बाघ की खाल पर 100 रुपए और लेपर्ड की खाल लाने पर 50 रुपए दिए जाते थे. इस खाल के साथ सिर भी जुड़ा रहता था. तभी पैसे मिलते थे.
पहले सिर्फ नर बाघ मारते थे
उन्होंने बताया कि जब भारत में राजतंत्र था. तब यहां का जंगल जमींदारों के हाथ में था. तब जंगल में राजाओं और राज घरानों के लोगों द्वारा ही शिकार किया जाता था. राजा अपने जंगल को बचा कर रखते थे. गिरे पेड़ को ही जंगल से लाया जाता था. किसी भी जानवर के शिकार करने के दौरान निशाना न लगने पर छोड़ दिया जाता था, मगर जब देश स्वतंत्र हुआ और 1951 में जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हो गया, तब अंधाधुंध जंगल की कटाई और जंगली जानवर का शिकार होने लगा. राजा महाराजा जहां नर बाघ का ही शिकार करते थे, मगर आजादी के बाद 1951 से 1965 तक नर हो या मादा बाघ समेत सभी जंगली जानवरों का बेतहासा शिकार हुआ. इसके बाद बाघ समेत जंगली जानवर की संख्या कम होने लगी.
तब बना टाइगर प्रोजेक्ट
तब 1971 में वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट लाया गया. 1970 में जब पहली बार जनगणना हुई तो पलामू में 22 बाघ ही मिले. तब ‘सेव द टाइगर’ के तहत टाइगर प्रोजेक्ट बनाया गया. 4 अप्रैल 1974 को देश के अलग-अलग हिस्सों में टाइगर प्रोजेक्ट बनाया गया. उन्होंने बताया कि आज देश भर में लगभग 3000 से 4000 बाघ मौजूद हैं. इन्हें बचाना और इनकी संख्या बढ़ाना बहुत जरूरी है.
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FIRST PUBLISHED : May 12, 2024, 07:46 IST