पश्चिम बंगाल सरकार और राज्यपाल सीवी आनंद बोस (C.V. Ananda Bose) एक बार फिर आमने-सामने हैं. राज भवन की एक महिला कर्मचारी ने राज्यपाल पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया है. इसके बाद बंगाल सरकार, राज्यपाल पर हमलावर है. उधर गवर्नर ने कहा है कि उन्हें बदनाम करने के लिए ममता बनर्जी और उनकी पार्टी ने षड्यंत्र रचा. आरोप-प्रत्यारोप के बीच पश्चिम बंगाल पुलिस ने मामले की जांच शुरू कर दी है और राजभवन के 6 कर्मचारियों को तलब किया है.
पिछले हफ्ते ही राज्यपाल सीवी आनंद बोस ने राज भवन स्टाफ को एक चिट्ठी लिखकर कहा था कि वो कोलकाता पुलिस से किसी भी तरह का संवाद न करें. इसी चिट्ठी में राज्यपाल ने संकेत दिया था कि गवर्नर के खिलाफ, पद पर रहते हुए किसी भी तरह की आपराधिक कार्यवाही नहीं की जा सकती है. उन्होंने संविधान में दी गई शक्तियों का भी हवाला दिया था.
तो क्या राज्यपाल के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही नहीं कर सकती है? उन्हें जेल नहीं भेजा जा सकता है? संविधान में क्या छूट दी गई है? समझते हैं इस Explainer में…
संविधान में क्या प्रावधान?
संविधान के अनुच्छेद 361 में कहा गया है कि राष्ट्रपति, राज्यपाल या किसी भी राज्य का राजप्रमुख “अपने अथवा अपने कार्यालय की शक्तियों, उसके प्रयोग, कर्तव्यों के निर्वाह के लिए किसी भी अदालत के प्रति जवाबदेह नहीं होगा..” इस प्रावधान में दो महत्वपूर्ण उप-खंड भी हैं. पहले उपखंड में कहा गया है कि राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल के खिलाफ उनके कार्यकाल के दौरान किसी भी अदालत में कोई भी आपराधिक कार्यवाही शुरू या जारी नहीं की जाएगी. दूसरे उपखंड में कहा गया है कि राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल को उनके पद पर रहते हुए उनकी गिरफ्तारी या जेल भेजने की प्रक्रिया अथवा अदालत से ऐसा आदेश जारी नहीं किया जा सकता है.
पुराने उदाहरण
पुराने उदाहरण देखें तो पता लगता है कि जब किसी राज्यपाल पर ऐसे गंभीर आरोप लगे, तो उन्होंने खुद अपना पद छोड़ दिया. जैसे- साल 2009 में, आंध्र प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल एन डी तिवारी पर एक सेक्स स्कैंडल में शामिल होने का आरोप लगा. इसके बाद उन्होंने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया था. इसी तरह, साल 2017 में मेघालय के राज्यपाल वी शणमुगनाथन ने अपने खिलाफ यौन उत्पीड़न का आरोप लगने के बाद इस्तीफा सौंप दिया था. उस वक्त मेघालय राजभवन के करीब 100 कर्मचारियों ने गवर्नर पर अपने कार्यालय की गरिमा से “गंभीर समझौता” करने का आरोप लगाते हुए उन्हें हटाने की मांग की थी.
क्या आजीवन मिलती है छूट?
गौर करने वाली बात यह है कि राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल को जो संवैधानिक छूट दी गई है, वो आजीवन नहीं. सिर्फ और सिर्फ उनके कार्यकाल तक ही सीमित है. यानी जब तक वो कुर्सी पर हैं, तब तक उनके खिलाफ कार्यवाही नहीं की जा सकती है. उदाहरण के तौर पर साल 2017 में, सुप्रीम कोर्ट ने 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में भाजपा नेताओं लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती के खिलाफ दोबारा कार्यवाही शुरू की थी.
कोर्ट ने लखनऊ सत्र न्यायालय को उनके खिलाफ आपराधिक साजिश का अतिरिक्त आरोप तय करने का निर्देश दिया था. हालांकि, इसी फैसले में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के खिलाफ आरोप तय करने पर रोक लगा दी गई थी. उस वक्त वो राजस्थान के राज्यपाल के रूप में कार्यरत थे.
कल्याण सिंह का केस
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि ‘कल्याण सिंह, राजस्थान के राज्यपाल होने के नाते, संविधान के अनुच्छेद 361 के तहत तब तक छूट के हकदार हैं जब तक वह राज्यपाल के पद पर रहेंगे. जब वह पद से हट जाएंगे, सत्र न्यायालय उनके खिलाफ आरोप तय कर सकता है…’ कल्याण सिंह का कार्यकाल खत्म होने के तुरंत बाद सीबीआई ने फरवरी 2022 में उन्हें समन जारी और ट्रायल में शामिल होने के लिए लखनऊ की सत्र अदालत का रुख किया था.
जब सुप्रीम कोर्ट ने वापस ले लिया आदेश
एक और मशहूर मामला साल 2016 का है. उस वक्त सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल से पूछा कि आखिर उन्होंने सीमावर्ती और संवेदनशील राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश क्यों की? इसके तुरंत बाद सुप्रीम कोर्ट ने ‘चूक’ बताते हुए अपना आदेश वापस ले लिया और कहा कि राज्यपाल को ‘कंप्लीट इम्यूनिटी’ मिली है और किसी कोर्ट के प्रति उत्तरदायी नहीं हैं.
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FIRST PUBLISHED : May 14, 2024, 09:32 IST