अल्मोड़ा जिले के मानिला डंढोली गांव में 16 सितंबर 1942 को नारंगी देवी व मोहन सिंह के घर जन्मे राणा की प्राथमिक शिक्षा गांव के ही स्कूल से हुई थी। 15 वर्ष की आयु में लोकगीतों की रचना करने लगे। रोजी-रोटी के दिल्ली गए। सेल्समैन की नौकरी की। बाद 1971 में ज्योली बुरुंश, 1974 में नवयुवक केंद्र ताड़ीखेत, 1985 में मानिला डांडी, 1992 हिमांगन कला संगम दिल्ली, 1987 में मनख्यू पड्याव जैसे लोक सांस्कृतिक समूहों का गठन कर लोक संगीत यात्रा को आगे बढ़ाया। उत्तराखंड के चितेरे कलाकार का 13 जून 2020 को दिल्ली में निधन हो गया। हीरा सिंह राणा के निधन से लोकसंगीत को अपूर्णीय क्षति हुई है।
पहाड़ व पहाड़वासियों की अस्मिता से जुड़े मुद्दों पर राणा हमेशा सक्रिय रहे। उनकी कलम ने लोगों का दुख-दर्द लिखा और जुबान हौसला व साहस रूपी आवाज बनी। ””लस्का कमर बांधा, हिम्मत का साथा कुमाऊंनी, फिर भुला उजालि होलि कां ले रोलि राता..”” गीत में यह साफ झलकता है। राणा को अपनी मातृ भूमि से कितना लगाव था, उनकी बानगी उन्हीं के गीत ””मेरी मानिला डांडी तेरी बलाई ल्योंला, तू भगवती छै तू ई भवानी, हम तेरी बलाई ल्योंला”” से झलकती है।
हिरदा के कुमाउंनी गीतों कीकुमाऊंनी एलबम रंगीली बिंदी, रंगदार मुखड़ी, सौ मनों की चोरा, ढाई बीसी बरस हाई कमाला, आहा रे जमाना खासी लोकप्रिय हुई। आकाशवाणी नजीबाबाद, लखनऊ व दिल्ली से भी उनके गीत प्रसारित हुए। उनका बहुत प्रसिद्ध गीत रंगीली बिंदी, घाघरी काई.., के संध्या झुली रे.., मेरी मानिला डानी.., लस्का कमर बांधा को खूब सराहा गया।
उन्होंने उत्तराखंडी संस्कृति को रंगीली बिंदी, रंगदार मुखड़ी’, ‘आहा रे ज़माना’ आदि लोकगीतों के जरिए नई पहचान दिलाई।
हीरा सिंह राणाजी अपने गीतों से हमारे बीच अमर रहेंगे।